चीन की आर्थिक कशमकश : प्रेमचन्द्र सिंह
प्रेम चन्द्र सिंह, लखनऊ, 24 जुलाई । करीब 33 साल पूर्व चीन के तिआननमेन स्क्वायर में घटित मानव त्रासदी के भयानक वाक्या से जो लोग वाकिफ हैं, उनके लिए चीन के शहरों में सड़कों पर अपने ही नागरिकों के विरुद्ध हालिया टैंकों का प्रदर्शन कोई आश्चर्यजनक घटना नही है। चीन को अभी हाल तक दुनियां की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक व्यवस्था माना जा रहा था और यह भी कहा जा रहा था कि चीन अमेरिका को पीछे छोड़कर विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक व्यवस्था बनने की दौर में है। लेकिन अभी पिछले काफी दिनों से खबर है कि चीन में बैंकों द्वारा अपने जमाकर्ता ग्राहकों का पैसा लौटाया नही जा रहा है। इससे ग्राहकगण नाराज हैं और वे सब पैसा लौटाने के लिए बैंकों के विरुद्ध बड़ी संख्या में प्रदर्शन कर रहे हैं। इस तरह की समस्या को अर्थशास्त्र की भाषा में ‘बैंक रन’ कहा जाता है। अब इसकी प्रतिक्रिया में लोगों में आक्रोश इतना बढ़ गया है कि चीन के तमाम शहरों में बैंकों के ऋण लेने वाले ग्राहकों का कहना है कि अगर बैंकें हमे हमारा पैसा नही लौटाएगी तो हम सब भी बैंकों के द्वारा प्रदत्त ऋणों की अदायगी हेतु किस्तों का भुगतान नहीं करेंगे। फिलहाल चीन के 22 शहरों में 35 परियोजनाओं के तहत ऋण गृहिताओं द्वारा लिए गए ऋण करीब 83 बिलियन अमेरिकी डॉलर के विरुद्ध किए गए मोर्डगेज से बाहर आने का कोई रास्ता चीन के बैंकों को नही दिख रहा है।
वैसे तो पूरे विश्व में मुद्रास्फीति (महंगाई) की स्थिति बेकाबू हो रही है और बढ़ती मंहगाई की स्थिति करीब-करीब सभी देशों के केंद्रीय बैंकों की बर्दास्त सीमा से आगे निकल चुका है। इसके साथ ही सभी देशों की आर्थिक विकास दर लगातार गिर रही है। ऐसी स्थिति, जिसमे आर्थिक गिरावट हो और महंगाई में बढ़ोतरी हो, इसे अर्थशास्त्र में ‘स्टैगफ्लेशन’ के नाम से जाना जाता है। आमतौर पर आर्थिक गिरावट जब होती है तो मांग में भी गिरावट होती है और तदनुसार किमते भी गिरती हैं। लेकिन अभी इसके उलट विश्व स्तर पर आर्थिक गिरावट के साथ कीमतें भी बढ़ रही है, वर्णित आर्थिक पारिस्थितिकी अर्थशास्त्रियों के लिए पहेली बन गई है और उनके सामने चुनौती भी खड़ी कर दी है।
बैंकों के कामकाजों पर निगाह रखने वाले पर्यवेक्षकों का मानना है कि चीन की बैंकों में एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स) में बेइंतहां बढ़ोत्तरी हो रही है। इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बाबजूद भी चीन की बैंकिंग व्यवस्था में संस्थागत जोखिम नियंत्रण प्रणाली का अभी तक समुचित विकास नही हो पाया है। चीन की अर्थव्यवस्था की खासियत है कि वहां अच्छा या बुरा जो भी होता है, बहुत बड़े पैमाने पर होता है। अगर आर्थिक धोखाधड़ी भी होती है तो उसका भी पैमाना बड़ा ही होता है। जानकारों का मानना है कि चीन अपने बैंकों की एनपीए को अपने एक जटिल लेखा प्रणाली के माध्यम से देश की राजकोषीय घाटा (Fiscal Deficit) में परिवर्तित करता रहता है। ऐसा इसलिए होता है कि सरकारी उद्यमें तो सरकार की नियंत्रण में है ही, चीन में अन्य देशों की तरह निजी क्षेत्र की उद्यमें भी पूरी तरह से निजी नही होते हैं बल्कि निजी क्षेत्र की उद्यमों, बैंकों आदि सभी उपक्रमों में सरकार की अहम हिस्सेदारी होती है। इसलिए चीन की सभी निजी और गैर- सरकारी उद्यमों में चीन सरकार की अहम सहभागिता होती है। चीनी बैंकों की एनपीए की उत्पत्ति वहां के कोर सेक्टर की वित्तीय जटिलता के कारण हुई है। आमतौर पर कोर सेक्टर में स्टील, पावर, खनिज और परिसंपत्ति उद्योग आदि शामिल होता है। चीन की बैंकों की आर्थिक बदहाली में सबसे ज्यादा स्टील उद्योग की भूमिका है। स्टील उत्पादन में चीन दुनियां का नंबर एक देश बनने के लिए दुनियां की अन्य सर्वाधिक स्टील उत्पादक पांच देशों – अमेरिका, जापान, भारत, यूरोपियन यूनियन और रूस – की सम्मिलित उत्पादन क्षमता से अधिक अकेले चीन ने अपनी उत्पादन क्षमता को सृजित किया है। इन पांचों देशों की सम्मिलित स्टील उत्पादन से अधिक चीन में स्टील का उत्पादन है। वैश्विक खपत से अधिक स्टील उत्पादन के कारण चीन अपने पुराने स्टील उत्पादन इकाइयों को तो बन्द कर ही रहा है साथ ही स्टील के अत्यधिक स्टॉक को उत्पादन कीमत से भी कम दाम में निकालने के लिए भारत सरीखे कई एशियन तथा अफ्रीकन देशों में बेची जा रही है जिसे आमतौर पर डंपिंग (dumping) कहा जाता है। स्टील उत्पादन उद्यमों द्वारा सामान्यतया बैंकों से ऋण इस आर्थिक गणना के आधार पर लिया जाता है कि उत्पादित स्टील को बेचकर प्राप्त मुनाफा की धनराशि से बैंकों या अन्य वित्तीय संस्थानों द्वारा प्रदत्त ऋणों की अदायगी कर दी जाएगी। लेकिन जब वैश्विक स्टील की खपत से कही अधिक स्टील का उत्पादन हो रहा है तो ऐसे में उत्पादित स्टील को बेचना चीन की स्टील उद्यमों के समक्ष एक आर्थिक चुनौती के रूप में खड़ी हो गई है। ऐसे में घाटा में स्टील बेचकर चीन के स्टील उद्योग बैंकों की ऋणों की भुगतान करने में असमर्थता के कारण हाथ खड़े कर दिए हैं। यह जानते हुए भी कि मांग से अधिक उत्पादन हो रहा है, चीन की बैंकों ने संभवतः राजनीतिक दबाव में अतिरिक्त नए-नए स्टील कारखानों के लिए ऋण की धनराशि मुहैया कराती रही है।
चीन में सट्टा-बाजारी का धंधा काफी अरसों से जोरों पर है। वर्ष: 2007-8 की मंदी के समय चीन की बैंकों ने खुलकर सस्ते व्याज दर पर लोगों को कर्ज दिया, ताकि लोगों में खरीददारी करने की क्षमता बढ़े और आर्थिक मंदी का असर से चीन को बचाया जा सके। चीन के लोगों ने भी दिल खोलकर सस्ते व्याज दर (1%-2% वार्षिक) पर बैंकों से खूब ऋण लिया और उस धनराशि को अधिक मुनाफा कमाने के लिए सट्टा-बाजारी में लगाना शुरू किया। वहां यह सट्टा बाजारी स्थाई संपत्ति (Real Estate) उद्योग में भी गहरी पैठ बना चुकी है। अनुमानित मुनाफा के आधार पर बैंकों के सस्ते ऋणों से मकान की मांग से अधिक मकानों /फ्लैट्स रियल एस्टेट उद्यमों द्वारा निर्मित कर दिए गए और दूसरी ओर बैंकों के ऋण से मुनाफा कमाने हेतू दूसरे विपणन फर्मों या लोगों द्वारा बड़ी संख्या में उन मकानों/फ्लैट्स को अग्रिम भुगतान कर खरीद लिए गए। अब उन मकानों को खरीदने वाले ग्राहक नही हैं और हैं भी तो उनके लागत से बहुत कम कीमत दे रहे है।ऐसे में न मकान/फ्लैट्स बिक रहे हैं और न ही बैंकों द्वारा प्रदत्त ऋणों की वसूली संभव हो पा रही है। फलस्वरूप बैंकों की एनपीए में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी हो गई है। सट्टा-बाजारी जोखिम भरा तो होता ही है, कभी खूब मुनाफा मिलता है तो कभी खूब घाटा भी होता है।
बैंकिंग प्रणाली में कैश-रिजर्व-रेशियो (सीआरआर) एक संस्थागत नियामक व्यवस्था है। इसके अंतर्गत बैंकों में जितनी धनराशि आती है, उसे बैंकें पूरा का पूरा ऋण में नही दे सकती हैं बल्कि उसका एक निश्चित भाग उसे अपने देश के केंद्रीय बैंक में रिजर्व के रूप में जमा करना पड़ता है। मिशाल के तौर पर भारत के किसी बैंक में जितना धन जमा होता है, उसका 4.5% धनराशि उसे भारतीय रिजर्व बैंक में जमा करना होगा और शेष राशि ही बैंकों के पास बैंकिंग कार्यक्रमों/दायित्यों की पूर्ति के लिए उपलब्ध होता है। चीन की बैंकों की खस्ताहाल को देखते हुए लगता है कि चीन में सीआरआर प्रणाली का बैंकों द्वारा या तो उलंघन हुआ है या सारे के सारे जमाकर्ता एक साथ अपना पैसा निकालने बैंकों के पास आ गए हैं। किसी भी बैंक के पास अपनी सभी जमाकर्ताओं को उनकी समस्त जमा धनराशि की एकसाथ भुगतान के लिए धनराशि उपलब्ध कभी नही रहती है। जामकर्ताओं में अफरातफरी का माहौल केवल बैंकिंग कार्यप्रणाली में उनकी अविश्वास के कारण होता है, उनको लगता है कि अब उनका पैसा बैंकें लौटाने में असमर्थ है। इससे लगता है कि चीन की बैंकिंग व्यवस्था रसातल का रुख कर चुकी है।
प्रख्यात अर्थशास्त्रियों का मानना है कि चीन की समृद्ध अर्थव्यवस्था (जीडीपी करीब 13 ट्रिलियन यूएस डॉलर) और विशाल विदेशी मुद्रा भंडार (करीब 3 ट्रिलियन यूएस डॉलर से भी अधिक) के मद्देनजर चीन को इस आर्थिक चुनौती से निकलने के लिए बहुत से विकल्प उपलब्ध हो सकते हैं। वर्णित स्थिति में चीन की बैंकिंग वित्तीय प्रबंधन की चरमराहट बहुत चिंताजनक नही है और उम्मीद है कि चीन अपने विदेशी मुद्रा भंडार का मुद्रीकरण करके स्थिति को संभाल लेगा। लेकिन चीन पर अपने आर्थिक प्रबंधन की कमजोरियों को दुरुस्त करने का दबाव तो बना ही रहेगा। चीन की अर्थव्यवस्था के दवाब में होने के कारण भारत तथा अन्य देशों में चीन से होने वाली पूंजीगत निवेश के रुकने का खतरा रहेगा क्योंकि चीन अपनी पूंजी को अपनी बिगड़ती आर्थिक व्यवस्था को ठीक करने में लगाएगी, न कि विदेशों में पूंजी निवेश में। भारत-चीन व्यापार पर चीन की आर्थिक संकट का असर फिलहाल दिखता नजर नहीं आ रहा है। चीन अपने घरेलु आर्थिक दवाब के साथ ही अपने विदेशी क्रेडिट ट्रैप के कारण भी परेशानी में है। मसलन चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) की विभिन्न महत्वकांक्षी परियोजनाओं तथा विदेशी खनिज खनन उद्योग में निवेशित भारी पूंजी पर न तो उसे अपेक्षित लाभ मिल रहा है और न ही पूंजी की वापसी की संभावनायें ही निकट भविष्य में दिख रही है। अब तो चर्चा यह भी होने लगी है कि चीन दुनियां के छोटे और आर्थिक रूप से कमजोर देशों को अपने कर्ज के जाल में फसाने की जद्दोजहद में वह खुद ही बुरी तरह अपने ही बुने क्रेडिट-ट्रैप में फंस चुका है। चीन अगर सावधानी से अपनी आर्थिक चुनौतियों का समाधान समय रहते नहीं करता है, तो निश्चय ही चीन आर्थिक संकट के कसते शिकंजे में और जकड़ता चला जायेगा।
“इज्जतें, शोहरतें, चाहतें, उल्फतें,
कोई भी चीज दुनियां में रहती नहीं।
आज मैं हूं जहां, कल कोई और था;
ये भी एक दौर है, वो भी एक दौर था।”
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