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लोकतन्त्र के मन्दिर में न्यूडिटी की खूबसूरत शूटिंग : कैलाश महतो


कैलाश महतो, परासी । तर्कशास्त्र की बात गलत नहीं कि कपडे के नीचे हर इंसान नंगा होता है । अन्य जानवरों की तरह ही आदमी भी नंगा ही पैदा होता है । नंगापन उसका प्राकृतिक स्वाभाव है । मनोवैज्ञानिक को मानें तो नंगा होने में जितना सुविधा और आनन्द है, कपडे उतने ही आनन्द का दुश्मन है ।



प्रकृति द्वारा आदमी में प्रदत्त होशियारी ने आदमी में थप सुरक्षा की ज्ञान बढा दी ।‌ बाध्यतावश “आदमी” ने अपने को “मनुष्य” बनाने की चेष्टा कर ली । तर्कशास्त्र के अनुसार आदमी “आदम” से बनता है और “मनुष्य” आदमी के अन्दर रहे *मन” से निर्मित हुआ है । जब आदमी “मनुष्य” बनने लगा, फसाद वहीं से शुरु हो गया । “आदम” का अर्थ मिट्टी होता है ।

आदमी ने ज्योंही अपने मन से काम करना प्रारम्भ किया, वह प्राकृतिक आदमी से अपने को भिन्न और सभ्य दिखाने का चेष्टा करने लगा । उसीका परिणाम है कि उसने ध्वनी, अक्षर, शब्द और वाक्यांश निर्माण किये, व्याकरण बनाये और बोलियां निर्माण कीं । समाज और संस्कार निर्माण की । सुरक्षा की अनेक जुगाडें बनायीं । उन्हीं सुरक्षा उपायों में से एक है “लिवास” निर्माण और “शरीरिक सुरक्षा” । बहुत वाद में मनुष्य “मानव” बना, जिसमें उसने sympathy, empathy, innovation, sentiments, love, respect, homage के भाव बाले संवेगात्मक सम्पत्तियों का भी निर्माण किया ।

सुरक्षा प्रयोजन से निर्मित मानव शरीर पर लगाये जाने बाला कपडा पोशाक के रुप में आते आते प्रतिष्ठा का भी एक मानक बन गया । अब सुरक्षा से ज्यादा कपडा आदमी के लिए शान, मान और अमिरी गरीबी का का पहचान बन गया । कपडों को लोगों ने पारिवारिक, सामाजिक प्रतिष्ठा और आर्थिक मापदण्ड का मानक मानने लगा । अनेक सस्ते और महंगे वस्त्रों का आविष्कार हुआ । कपडों ने समाज में व्यक्ति और परिवार और समाज में सामाजिक और आर्थिक प्रतिष्ठा जोड दिये ।

कपडे भले ही सामाजिक और आर्थिक प्रतिष्ठा का मानक बना । मगर इसने अनेक लफडे भी शुरु कर दिये । शरीर पर पसरे लिपटे लिवासों ने मानव को कपडे के अन्दर रहे नंगापन को प्राप्त करने के लिए न केवल आदमियत को बदला, बल्कि उसमें हिंसा की प्रवृत्ति भी भर दी ।

समाज ने कपडों से जिस्म की प्रतिष्ठा इस कदर कायम कर ली कि इतिहास में मानव जिस्म को कपडों से बाहर देखने के लिए खूंखार घटनायें घटित होने लगीं । सीता, द्रौपदी, हेलेन तथा अनेक अप्सराएँ कपड़े के शिकार हो गईं । अनेक महिलायें पुरुष शरीर को करीब से पाने के लिए बचैन हो गईं ।

मानव विकास के क्रम में ही आदमी ने समाज और राजनीति निर्माण किया । राजनीति को सूत्रबद्ध करने हेतु आदमी ने संसद निर्माण किये ता कि समाज और उसके क्रमिक विकास के लिए विचार विमर्श, छलफल, तर्क, विश्लेषण, ब्याख्या तथा योजनाएं बना सकें । उसी क्रम में नेपाल के संसद में बडा अजीब वस्त्र-खोल घटना ने हल्ला खल्ला मचा दी है ।

नया एक जीवन प्राप्ति के लिए मनुष्य बडे शौक से आदमी बन जाता है । वो अपने कपडे खोलकर ही नया कोई आदमी उत्पादन का कृयाकलाप करता है । यह अति प्राकृतिक है । आदमी पैदा करने के लिए मनुष्य को आदमी बनना ही पडेगा । मनुष्य बनने के लिए प्रकृति के बहुत सारे नियमों को छोडने पडते हैं ।

संसद भी एक कृडास्थल ही है । वहाँ भी रगडाई, मेहनत, संघर्ष और उत्पादन का खेल होते हैं । संसद में जब वैचारिक बहस और तर्क का विकल्प समाप्त हो जाता है, तो स्वाभाविक रुप से एक प्राकृतिक लडाई अपना स्थान बनाता है और लोग अपने वस्त्र तक को निकाल फेकते हैं । नेपाली सदन में वही हुआ है, जिसे लोक भाषा में “विद्रोह” कहा जाता है ।

सदन का स्वरूप ही समाज के मुद्दों पर बहस, छलफल तथा निष्कर्ष निकालना होता है । विश्व जानता है कि नेपाल सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रुप में बेहाल है । सांसद स्वर्णिम वाग्ले के अनुसार देश ने जहाँ आर्थिक वर्ष ०७९-०८० में ७३३ अर्ब राजस्व उठाया है, वहीं उसी आर्थिक वर्ष का राष्ट्रीय खर्च १,०१६ अर्ब दिख रहा है । देश पर २० खर्ब ७० अर्ब से ज्यादा का ऋण है । सरकारी बैंक एक तरफ जनता की आर्थिक दयनीयता को इजाफा किया है, वहीं प्राइवेट बैंकों ने जनता को अकल्पनीय महंगे ब्याज दरों का शिकार बनाया है । तीसरी तरफ सरकारी और प्राइवेट दो‌नों बैंकों ने कर्जा देना बन्द कर दिया है, तो चौथे तरफ उन बैंको ने गरीब मजदूरों के पुश्तैनी और उनके श्रम पसीने से आर्जित उनके चल अचल सम्पत्तियों को लिलाम और जब्त करने में मशगूल हैं ।

काण्ड ही काण्ड का ताज पहने देश के राजनीतिक, आर्थिक, चारित्रिक और राष्ट्रीय घोटालों से जुड़े फेहरिस्तों को उजागर करने हेतु संसद के स्वतन्त्र सांसद डा. अमरेश कुमार सिंह ने सभामुख से कुछ थप समय मांगने की बात सुनी जा रही है । सभामुख के द्वारा समय न देने के विरोध स्वरूप सांसद डा. अमरेश कुमार सिंह द्वारा कपडा खोलकर विरोध करने की बात सामने आ रही हैं ।

नेपाल में लोकतन्त्र होने की बात चर्चा ही गलत है । “लोकतान्त्रिक गणतन्त्र” नेपाल की शब्द चयन ही उल्टापुल्टा है । खास में “गणतान्त्रिक लोकतन्त्र” होना चाहिए था । नेपाल में गणतन्त्र कहा जा सकता है । मगर यहाँ कोई लोकतन्त्र नहीं है । जिस संसद में जनता की बात पर खुल्ला बहस नहीं हो, जन प्रतिनिधियों को देश के राष्ट्रीय मुद्दों पर विशेष समय न दिये जाते हों – वहाँ लोकतन्त्र होने की बात ही भ्रम है ।

देश में व्याप्त राजनीतिक और आर्थिक घोटालों से जूडे समस्याओं पर चर्चा होना देश हित की बात है । डा. अमरेश कुमार सिंह व्यक्तिगत रुप में क्या हैं, उसकी अध्ययन और खोज तलाश होनी चाहिए । मगर जब कोई सांसद देश के महत्वपूर्ण शीर्षक पर बोलने हेतु संसद से विशेष समय का मांग करें, तो वह उसका अधिकार है और सदन की जिम्मेवारी ।

राजनीतिक लहजे में लोकतन्त्र में “जनता” नहीं, “नागरिक”  होना चाहिए । बात लोकतन्त्र की, और व्यवहार जनता की करना राजनीतिक तिकडमबाजी है । हम “स्वर्ग-जन” या “इन्द्र-जन” नहीं, “स्वर्ग-लोक” और “इन्द्र-लोक” कहते हैं । वहाँ जनता नहीं, सक्षम लोग रहने की अवधारणायें है । “लोक” का अर्थ “पुण्य आत्मा”, “सक्षम और सर्वमान्य लोग” होता है । उस मायने में नेपाली “लोक” नहीं, “जन” है । “जन” का शाब्दिक अर्थ “आदमी” होना है, “मनुष्य” नहीं । “आदमी” को जन्म दिया जाता है और मनुष्य बनाया जाता है या खुद एक आदमी मनुष्य बनने का चेष्टा करता है । मगर दु:ख की बात है कि नेपाली आज के वैज्ञानिक और उत्तर आधुनिक युग में भी “जनता” कहलाता है ।

शाब्दिक स्वरूप में नेपाल में जनतन्त्र है, लोकतन्त्र नहीं । मगर राजनीतिक परिभाषा के अन्तर्गत “जनतन्त्र” भी कहना अतिशयोक्ति होगा । क्योंकि जनतन्त्र में भी जनता की शक्ति हावी होती है । नेपाली “जन” आज “प्रजा” भी नहीं हैं, क्योंकि “प्रजा” राजा के राज्य में होता है । दयनीयता को बाध्यतावश स्वीकार करने बाला समूह ही “जनता” है, जिसकी केवल शोषण होती है – उसकी समृद्धि नहीं ।

डा. अमरेश कुमार सिंह पहला व्यक्ति नेता नहीं हैं, जिन्होनें संसद में कपडे खोले हों । ब्राजिल, क्यानाडा, मेक्सिको जैसे अव्वल और सभ्य राष्ट्रों में समेत कपडे खोलकर संसदीय विभेदों के विरोध किये गये हैं । यह केवल विरोध करने की शैली है । इससे संसद की गरिमा, या किसी व्यक्ति  की आचरणहीनता नहीं, विरोध शैली का एक सशक्त विद्रोह है ।

लोकतन्त्र के मन्दिर में नयूडिटी की जो खूबसूरत शूटिंग हुई है, वह लोकतान्त्रिक व्यवस्था और व्यवहार की मांग की आवश्यकता का एक ज्वलन्त उदाहरण है ।‌ नेपाली जनता की सबसे बडी कमजोरी है कि दुर्गन्धित चीजों से वह गुलाब की कल्पना करती है । संसद में वर्षों से “गुंह” के रुप में रहे फूहडों से बिमारी फैलने के अतिरिक्त कोई उम्मीद करना व्यर्थ है । कृषि विज्ञान के अनुसार बाहर बिमारी फैलाने बाले तत्वों को केमिकलाइज्ड या और्गनाइज्ड करके उसे अच्छे खेती के लिए प्रयोग किया जाना चाहिए । संडे हुए घिनौने वस्तुओं के जैसे मौजूदा संसदीय नेताओं को समूल रुप में Organic मल बनाने के आलावे राजनीतिक भविष्य मानना देश के लिए दुर्भाग्य और अभिशाप है ।

सडक इन्टरभ्यू में सांसद अमरेश सिंह ने “म टिके सांसद होइन” कहना समानुपातिक सांसदों का घोर अपमान है । मगर देश से भ्रष्टाचार, अनियमितता, परिवारवाद, जातिवाद, नाता और कृपावाद, दौलतवाद का खात्मा पूर्ण समानुपातिक निर्वाचन प्रणाली से ही संभव है । डा. अमरेश कुमार सिंह के प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली से लोकतन्त्र की आगमन और न्यायपूर्ण शासन व्यवस्था दोनों की असंभावना गहरी है ।

करोडो की लगानी और धाक धम्की के आड में चुनाव जीतने बाले अमरेश सिंहों ने भी लोकतन्त्र को मजाक बनाने का जो अभ्यास करते आ रहे हैं, उससे देश और जनता को छल के बाहेक कुछ भी हासिल नहीं हो सकता । अरबों के लगानी से प्रत्यक्ष और मिश्रित निर्वाचन प्रणाली से निर्मित संसद और सांसदों से देश में न तो जनतन्त्र की कल्पना की जा सकती है, न लोकतन्त्र की । मौजूदा निर्वाचन प्रणाली से  देउवातन्त्र, प्रचण्डतन्त्र, ओलीतन्त्र, उपेन्द्रतन्त्र, रबितन्त्र ही पैदा होंगे, जन/लोकतन्त्र नहीं ।



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