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भगत सिंह के अनुसार- क्या भारत आज भी काले अंगे्रजों के पञ्जे तले कैद है ?

भारत के हर क्षेत्र से अंग्रेजीपन को खत्म करना ही भारतीय लोकतन्त्र का गहना होगा । क्यूँकि वो तानाशाह अंगे्रज भी अब दुनियाँ के सामने लोकतन्त्र का मजबूत उदाहरण बन गया है ।



कैलाश महतो, परासी, 7 मार्च ।

(कुछ अधिकारी लोकप्रिय भी इतने हैं कि वे अन्तरमन को भी छू लेते हैं । उनको नमन । )

Indian-Parliament-House-Delhi
आजाद भारत का अमर योद्धा भगत सिंह ने सही ही कहा था कि भारत से गोरे अंगे्रजो के शासन खत्म होने के बाद काले अंगे्रज लोग शासन करेंगे ।
कुछ विश्लेषकों को मानें तो अंग्रेजों का भारत में पनपना भारतीय कुछ प्रभु वर्ग के लोगोंद्वारा समान्य वर्गों पर लादे गये अनावश्यक राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक, धार्मिक तथा आर्थिक शासन ही रहने की भेद खुलती है । अंगे्रज मुख्य दो कारणों से भारत पर हावी हुए । पहला, तत्कालिन समय में आर्यों के घोर अहंकारी हिन्दुवादी संस्कार तथा दुसरा, मुगलो का राजकीय दबाव । इन दोनों के बीच के तितmता का व्यापारिक फायदे उठाने तथा इन दो अहंकारों के बीच में फँसे समान्य भारतीय लोगों का जनमत अपने पक्ष में लाकर कालान्तर में भारत पर ही शासन करने का अंगे्रजों की लम्बी रणनीति थी और उसी रणनीति के अनुसार उन्होंने सफलता भी पायी और सन् १७६५ से १९४७ तक उनकी राजनीतिक शासन भी चली ।
भारतीय महासंग्राम और लाखों भारतीय भूमि–पुत्र के शहादतपूर्ण बलिदानी के कारण भारत अन्ततः आजाद हुआ और विश्व में साम्राज्य फैलाकर शासन करने का सोंच रखने बाले अंग्रेजों को भारत तो छोडना पडा, परन्तु अंग्रेज अपना मानसिकता भारतीयों पर लाद कर ऐसे गए जो आज भी भारत पर राज कर रहा है ।
मेरे सगे सम्बन्धी लोग भारतीय हैं । उनमें से कई लोग भारतीय प्रशासन के उच्च अधिकारी हैं और कुछ राजनीति के राष्ट्रिय नेतृत्व में भी मौजुद हैं । लेकिन हम उन्हें केवल रिस्तेदार के रुप में सम्मान करते हैं । उससे ज्यादा नहीं ।
भारत दनियाँ में लोकतन्त्र के एक उदाहरणीय देश है । सृष्टि काल से ही अन्याय और अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने और न्याय के पक्ष में खडे होने के लिए जिस भारत ने ब्रम्हा, विष्णु, महेश से लेकर राम, कृष्ण, प्रल्हाद, नरसिम्ह, दुर्गा, काली आदि शतिmयों को जन्म दिया, उस धरती के बहुत से शासक और प्रशासक आज भी अंगे्रजी शैलियों को निरन्तरता दे रहे हैं । भारत भगत सिंह, खुदीराम बोस, चन्द्र शेखर आजाद, सुभाषचन्द्र बोस और गाँधी का देश है । इन सारे महान् हस्तियों ने जिस भारत को अंग्रेजों से आजाद करबाया, वह भारत भगत सिंह के कहे अनुसार आज भी काले अंगे्रजों के पञ्जे तले कैद तो नहीं है ? यह प्रश्न स्वतः खडा हो जाता है । क्यूँकि उनके ही देश के वर्तमान के वे शासक और प्रशासक उसी अंगे्रजी शैली में जनसाधारण से आज भी शलुक करते नजर आते हैं । प्रशासन और पुलिस में तो पूरे के पूरे अंगे्रज हुकुमत ही मौजद है ।
लोकतन्त्र में लोक कल्याण की बात मौजुद होती है । लोक का मतलब कोई धनाढ्य, बडे नेता, पहुँच बाला, चापलुस या ऐसे ही कोई व्यक्ति या समुह को अगर समझें तो हमें कुछ नहीं कहना है । भारत कम से कम इस मान्यता से दुर ही होने का हमारा विश्वास है । लोक कल्याण के भावना से ओतपोत होकर ही भारत ने अपना दुतावास अन्य सारे देशों के साथ साथ नेपाल में भी खोली है । मगर नेपाल में अवस्थित भारतीय दुतावास पर अब प्रश्न उठाना भी लोकतान्त्रिक अधिकार है ।
भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के नाम पर कुछ वर्षों से हरेक साल विद्यालय स्तर से महाविद्यालय स्तर तक के लिए महात्मा गाँधी छात्रवृति कार्यक्रम अन्तर्गत दिल्ली, नोएडा तथा उत्तराखण्ड के लिए वर्ग ६ से उपर के वर्गों में नामांङ्कन हेतु गरीब तथा जेहन्दार छात्रों के लिए विज्ञापन निकाले जाते हैं । भारतीय सरकार के प्रति हम आर्थिक अवस्था से कमजोर रहे लोग कृतज्ञता जाहेर करना चाहते हैं । मगर क्या–गरीब और जेहेन्दार बच्चों के लिए प्रकाशित उस विज्ञापन के अनुसार किसी गरीब और जेहेन्दार बच्चे को छनौट की जाती है ? भारत और भारतीय सरकार के द्वारा दिए गये निर्देशों को दुतावासद्वारा पालन किया जाता है ? विद्यार्थी छनौट के लिए एक समान्य भी परीक्षा नहीं लेनी चाहिए ? सही छात्र और गरीब अभिभावक का व्यौरा तक नहीं लेनी चाहिए ? विद्यार्थी छनौट के लिए भी भारत क्या किसी नेपाली नेता का सिफारिस को ही उपयुक्त प्रकिया मान लेगी ?
भारतीय दुतावास सिर्फ कर्मचारियों का नौकरी करने की संस्था नहीं है, अपिुत वह जनविश्वास का एक मजबुत आधार स्तम्भ भी है, जिसे देशभक्त, भारतप्रेमी और लोकतन्त्रपे्रमी अधिकारी या कर्मचारी कतई नहीं भूल सकता ।
विगत के साल जैसे ही इस बार भी हजारों गरीब तथा जेहन्दार छात्र छात्राएं भी भारतीय दुतावास के विज्ञापन अनुसार फारम भरे थे । मगर उन क्याण्डिडेट्सों को पता तक नहीं चला कि लिखित या मौखिक परीक्षा कब हुई ? नहीं हुई तो क्यूँ नहीं ? बाद में परीक्षा मिति के बारे में दुताबास से पूछे जाने पर बताया जाता है कि इस बार बिना कोई परीक्षा बच्चों को सेलेक्ट कर ली गयी है ।
अब सवाल उठता है कि भारत के दुताबास भी बिना कोई जाँच विद्यार्थी को सेलेक्ट कैसे कर सकता है ? अगर किसी को अपने मन से या पावर के अनुसार ही होना÷करना था तो विज्ञापन निकालने की आवश्यकता क्या और क्यूँ रही ? बहुत सारे गरीब लोग कैसे कैसे पैसे इन्तजाम करके अपने अब्बल बच्चों को काठमाण्डौ ले जाकर फारम भरबाये थे इस विश्वास से कि बच्चों के बीच कम्पटिशन होगी और दुताबास अपने देश के स्कूलों में गरीब और तेज बच्चों को अध्ययन के लिए अवसर प्रदान करेगी ।
लोग दुतावास से निराश होने लगे हैं । उनका मानना है कि दुःख कष्ट के साथ दुतावास पहुँचना भी आर्थिक ऋण हुआ और दतावास के उपर का विश्वास और भरोसा भी चकनाचुर हुआ । वह गरीब और अच्छे बच्चों के लिए नहीं, बल्कि उसके लिए कोई धनाढ्य, पहुँचबाला या कोई बडे नेता या पार्टी की ही पहँुच चाहिए ।
मेरा भी दुताबास का एक तीता अनुभव रहा है । गत साल दुतावास में उसी छात्रवृति के फारम भरने के बाद परीक्षा की प्रकिया और तिथि के बारे में जानकारी लेने पहुँचा था । तब वहाँ के अधिकारी, जो एजुकेशन चीफ भी थे, को नमस्कार के साथ ज्योहीं मैंने उनसे अपनी जिज्ञासा रखी, उनके तेवर, आवाज और व्यवहार ऐसे लगे, मानो मेरा जानकारी लेना बहुत बडा अपराध रहा हो । मुझे वहाँ पाँच दश सेकेण्ड भी नहीं रहने दिया गया । मेरे साथ रहे मेरे बच्चे ने कहा, “पापा, आप तो कह रहे थे कि वहाँ के हाकिम लोग विद्वान् होते हैं । बहुत अच्छे होते हैं । वो अंकल तो अच्छे नहीं है पापा ।” उस मासुम को मैंने यह कहकर समझाने की कोशिश की कि वे किसी कारण से परेशान रहे होंगे बेटा । भारतीय लोग ऐसे नहीं होते हैं । वे उतने ही अच्छे होते हैं, जैसे आप के नाना, मामा, मौसे जी लोग हैं । लेकिन वो बच्चा आज तक उस बात को नहीं भूल पाया है ।
हम भारतीय उन तमाम शासन और प्रशासन में काम करने बाले अधिकारियों से निवेदन करना चाहेंगे कि आप ने जिस दुव्र्यवहार से बचने के लिए अंगे्रजों को भगाया, वही व्यवहार आपसे होना भारत के लोकतन्त्र और आप भारतीयों के लिए गर्व की बात कैसे हो सकती है ?
भारत के हर क्षेत्र से अंग्रेजीपन को खत्म करना ही भारतीय लोकतन्त्र का गहना होगा । क्यूँकि वो तानाशाह अंगे्रज भी अब दुनियाँ के सामने लोकतन्त्र का मजबूत उदाहरण बन गया है ।



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