क्या दूर होगा नेपाल का गतिरोध
अरुण कुमार त्रिपाठी:संविधान सभा के चुनाव के साथ नेपाल एक बार फिर राजनीतिक गतिरोध की ओर बढÞ रहा है । चुनाव में बुरी तरह पराजित हर्ुइ वहां माओवादी क्रांति का नेतृत्व करने वाली एनेकपा -माओवादी) भी अपने से अलग हुए घटक दल मोहन वैद्य ९किरण० की पार्टर्ीीेकपा -माओवादी) की तरह चुनाव लडÞ कर भी संविधान सभा के बहिष्कार के रास्ते पर है । एनेकपा -माओवादी) के नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड ने इस चुनाव को धोखा बताया है और कहा है कि इसमें राष्ट्रीय और अंतरर ाष्ट्रीय शक्तियों ने धांधली की है ।
उनकी पार्टर्ीीे दफ्तर के बाहर कार्यकर्ता हुंकार भर रहे हैं कि वे फिर भूमिगत होकर पुराने रास्ते की ओर लौट जाना चाहते हैं । इन सारी स्थितियों ने एक तरफ भारत, अमेरिका, यूरोपीय संघ जैसे लोकतांत्रिक देशों और संयुक्त राष्ट्र की चिंताएं बढÞा दी हैं तो दूसरी तरफ भारत और चीन के बीच नई किस्म की तनातनी की स्थिति पैदा कर दी है ।
भारत और अमेरिका ने जहां प्रचंड को समझाने और उनका गुस्सा शांत करने की पहल शुरू कर दी है वहीं चीन ने कहा है कि चुनाव प्रक्रिया का जल्दी अंत होना चाहिए । नेपाल की आज की स्थिति देख कर दिल्ली में एक सेमिनार की वह घटना याद आ जाती है जहां एक भारतीय वक्ता ने जब भारतीय संविधान सभा की तुलना नेपाल की संविधान सभा से की तो वहां बैठे एनेकपा -माओवादी) के एक साथी बिफर पडÞे ।
उनका कहना था कि भारत से हमारी तुलना नहीं हो सकती । क्योंकि भारत की संविधान सभा नामांकित थी जबकि हमारी संविधान सभी लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हर्ुइ है । उनका दावा था कि उनकी संविधान सभा में जनता की आकांक्षाओं का ज्यादा स् पष्ट प्रतिनिधित्व हो रहा है । उनकी बात और भावनाएं सुन कर भारतीय प्रतिनिधि खामोश हो गए और उन्होंने एक तरह से अपनी बात वापस लेते हुए माफी तक मांग डाली ।
लेकिन चुनी हर्ुइ संविधान सभा की पिछले पांच सालों में जो दर्ुगति नेपाल में हर्ुइ है वह भारत में तो नहीं हर्ुइ थी । वैसी दर्ुगति पाकिस् तान, बांग्लादेश या अन्य एशियाई देशों में जरूर हर्ुइ है, पर वे भी अब राजनीतिक स्थिर ता के र्ढरे पर आ गए हैं । नेपाल राजशाही के अवशेषों पर नई राजनीतिक व्यवस्था का भवन बनाना चाहता है लेकिन उसे कभी भार तीय लोकतंत्र के शिल्पी अपने ढंग से ढालने लगते हैं तो कभी चीनी अधिनायकवाद के कार ीगर ।
इस बीच समय-समय पर राजशाही का भूत भवन की कोई दीवार ढहा देता है । इसी खींचतान में नेपाल हिंसा, भ्रष्टाचार, जातिवाद, संघवाद और तानाशाही के बीच झूल रहा है और उसके संविधान निर्माता कोई रास्ता तय नहीं कर पा रहे हैं । दरअसल, जिस चुनाव से दुनिया के तमाम देशों को भारी उम्मीद थी वह इसलिए अस् िथरता वाला साबित हो रहा है क्योंकि वह भारत, अमेरिका और यूरोपीय संघ की कडÞी निगरानी में हुआ है और वहां मतदाताओं की पहचान की कडÞी परीक्षा ली गई है ।
प्रचंड अगर मतदाताओं के पहचान-पत्र और उनके मताधिकार में धांधली का आरोप लगा रहे हैं तो दूसरी तरफ चुनाव आयोग और दूसरी ताकतें इसे बेहद निष्पक्ष बता रही हैं । प्रचंड का मानना है कि मतदान केंद्र से मतगणना केंद्र के बीच मतपेटियां बदल दी गई हैं और यही कारण है कि उनकी पार्टर्ीीार गई है ।
प्रचंड के जले पर नमक छिडÞकने वाला काम तब हो गया जब वे काठमांडू में स्वयं राजन केसी से हार गए । वे न सिर्फहारे हैं बल्कि तीसरे नंबर पर रहे हैं । यही वजह है कि वे कह रहे हैं कि जनादेश को स्वीकार किया जा सकता है लेकिन साजिश और धांधली को नहीं । प्रचंड ने कहा कि वे जनता की आकांक्षाओं को पलटने वाली किसी भी अनियमितता और साजिश को स्वीकार नहीं करेंगे और इसके खिलाफ जल्दी ही जनांदोलन करेंगे । उनकी बात को आगे बढÞाते हुए उनके र्समर्थक जनयुद्ध की इजाजत मांग रहे हैं । दूसरी तर फ मुख्य चुनाव आयुक्त नीलकांत उप्रेती कह रहे हैं कि सभी राजनीतिक दलों को जनादेश का सम्मान करना चाहिए ।
जबकि मंत्रिमंडल- समूह के चेयरमैन खिलराज रेगमी और द्दण्ण्ड से चुनाव की निगरानी कर रहे पर्ूव अमेरि की राष्ट्रपति जिमी कार्टर को और सख्त रुख अपनाना चाहिए । अगर कोई चुनाव से संतुष्ट नहीं है तो उसे सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए लेकिन लोकतांत्रिक प्रक्रिया को नष्ट नहीं करना चाहिए और न ही हिंसा की बात करनी चाहिए । लेकिन प्रचंड की पार्टर्ीीर और कई चीजें भारी हैं ।
प्रचंड की खीझ इस वजह से भी है कि किसी चुनाव विश्लेषक ने उनकी पार्टर्ीीे तीसरे नंबर पर आने की भविष्यवाणी तो नहीं ही की थी । विडंबना यह है कि जिस चुनाव प्रक्रिया पर एनेकपा -माओवादी) के नेता प्रचंड धांधली का आरोप लगा रहे हैं उसमें लगे हुए लोग उलटे उन्हें ही कठघरे में खडÞा कर रहे हैं । चुनाव अधिकारियों और पर्यवेक्षकों का दावा है कि माओवादी न सिर्फफर्जी मतदाता तैयार करने में लगे थे बल्कि वे इस चुनाव को हर कीमत पर जीतने के लिए अपने कार्यकर्ताओं को ललकार रहे थे । इसके लिए प्रचंड के बयानों के वीडियो-टेप भी पेश किए गए और कुछ ऐसे भी टेप आए जिनमें मतदाताओं को रि श्वत देने के भी कथित सबूत हैं ।
उससे पहले चुनाव के लिए माओवादी व्यापारिया ंे स े अवधै धन वसलू ी कर रह े थ े । इन्ही ं आशकं ाआ ंे का े दखे त े हएु चनु ाव पब्र धं का ंे ने कडर्Þाई से मतदाता पहचान-पत्र बनाए और इस दारै ान मतदाताआ ंे की वास्तविक सख्ं या भी घट कर नीच े आ गर्इ । अगं ु िलया ंे क े निशान आरै फाटे ा े लग े पहचान-पत्रा ंे स े १.७० कराडे Þ स े घट कर कुल मतदाता १.२० करोडÞ रह गए । संभव ह ै कि सख्ं या म ंे आर्इ यह कमी आरै कडीÞ निगर ानी प्रचंड की पार्टर्ीीर भारी पडÞी हो ।
सबसे पहले तो पिछले पांच सालों में संविधान बना पाने में माओवादियों की जबर्दस् त नाकामी से न सिर्फप्रबुद्ध जनमत नाराज हुआ बल्कि आम जनता भी निराश हर्ुइ । जिस उम्मीद के साथ दस वषर्ाें के सशस्त्र संर्घष्ा में जनता ने माओवादियों का साथ दिया था उसे पूरा करने में वे अगर नाकाम रहे तो उसके लिए वे महज बाहरी शक्तियों को दोष देकर नहीं बच सकते । वे संविधान का ऐसा कोई मसविदा बना ही नहीं पाए जो सभी को स्वीकार्य हो । यही वजह है कि उन्होंने जो संविधान बनाया उसमें सौ से ज्यादा संशोधन किए गए । वे एक तरफ राष्ट्रपति को सबसे ज्यादा शक्ति देने वाली शासन प्रणाली कायम करना और एक ऐसा संघीय ढांचा चाहते थे जिसमें विभिन्न समुदायों को महत्त्व देने वाले ग्यारह राज्य हों । प्रचंड अपने एक साल के कार्यकाल में सेना प्रमुख को अपने प्रति जवाबदेह बनाने में नाकाम रहे । यह मसला शुरू से अटका रहा और टकराव का प्रमुख कारण बना । यह मामला तो द्दण्ण्ड में ही उलझ गया था जब प्रधानमंत्री प्रचंड की मंत्रिपरिषद की बात न मानने के कारण तत्कालीन सेना प्रमुख रुकमंगद कटवाल को सरकार ने हटाने का फैसला किया और र ाष्ट्रपति ने सरकार के उस फैसले को खारिज कर दिया । उस समय आरोप लगा कि यह सब भारत के इशारे पर हो रहा है और इस दौरान प्रचंड चीन की तरफ झुके भी ।